Don't compare but think about
एक घर है
या कहिए कि एक मकान है
जिसमें क ई सारी दीवारें
सबके अपने अपने दायरे
दायरों के अंदर और दायरे
और फिर उन दायरों में कैद कुछ आत्माएं
आत्माएं जो अर्ध मृत हैं
आत्माएं जो आलसी हो गई हैं
आत्माएं जो ऊब चुकी हैं ज़िंदगी से
क्योंकि उनके पास हर सुविधा है
वो जो चाहें कर सकती हैं
लेकिन आदत हो गई है उन्हें पड़े रहने की
कोई ज़हमत लेने का उसको अभ्यास नहीं
कुछ करने की न आकांक्षा है
न ही कुछ सहेजने की इच्छा
यहाँ तक कि वे अपने जीवन के
अनमोल क्षणों को
मोबाइल लैपटॉप टीवी और नींद में व्यर्थ करते हैं
दोस्तों के नाम पर कुछ
बिगड़े हुए अमीरज़ादे हैं
बीमार होने पर डाक्टर आता है
मेड भी आती है लेकिन मां को फुर्सत नहीं
पपा को फिक्र नही
दीदी अपने में व्यस्त हैं
अवसाद की परछाई में घिरती हुई
इन आत्माओं को
खुश करने के लिए जुटाई जाती हैं
म्यूजियम की तरह क ई चीजें
पैसों का अंबार लगाया जाता है
पार्टी की जाती है
ट्रिप प्लान की जाती है
जाते हैं मकान से दूर
लेकिन वहाँ भी रखते हैं वो अपने दायरे
लेकर चलते हैं अपने साथ
क ई सारी अजीब विचारधाराएँ
जिनके अंदर बातें अच्छी की जा सकती हैं
लेकिन व्यवहार दायरों में ही रहता है
उन दायरों में इंसानियत नहीं आती
इंसानियत को अच्छा नहीं लगता
ये भेदभाव का दायरा
वो कतराती हैं इन दोगले लोगों से
और वंचित कर देती इनके
बच्चों को अपने सानिध्य से..
और एक दूसरा घर भी है
जहाँ दायरों के नाम पर कुछ नहीं है
सबकुछ मिलाजुला है
एक ही कमरा है
बिना दीवारों का या दो कमरे भी हैं
तो दायरा नहीं है
कुछ बंटा हुआ नहीं है
सब मेहनत करते हैं
अक्सर एक दूसरे के लिए
लड़ते भी हैं लेकिन खयाल भी रखते हैं
सब साथ में खाते है
और बेसुरे सुरीले सभी स्वर साथ में गाते है
पूजा होने पर सबको प्रसाद दिया जाता है
पड़ोसियों के साथ चाय पी जाती है
मम्मी सबको खआना परोसती हैं
पापा भी हाथ बटा देते हैं
बच्चे की तबियत खराब होने पर
जबतक वो न खाए कोई नहीं खाता
उसको बेस्वाद लगने पर
कोई निवाला किसी को नहीं भाता
दीदी के कपड़े छोटी
और छोटी की इयरिंग दीदी पहन लेती हैं
दोनों की दोस्त अलग अलग होकर भी
दोनों से फ्रंटल हैं
छोटू अपना नेट खतम करके हाटस्पाट मांगता है
दीदी चिल्लाती हैं चिढ़ाती हैं
और फिर आन कर देती हैं
पापा बच्चों के खुद कमाने पर भी
उन्हें पाकेट मनी देते हैं
मना करने पर भी मम्मी रख देती हैं
बहुत सारी चीजें किसी के कहीं भई जाने पर
अभी भी छलक जाती हैं उनकी आंखे
घर से भेजते हुए
हर दिन करती हैं दुआएँ देती हैं आशीर्वाद
सहेजती हैं वो सब जो बच्चों से जुड़ा है
वैसे तो सबकी एक साथ तस्वीर नहीं है
लेकिन हर लम्हा जिया जआता है साथ में
हर अभाव में और गहरा हो जाता है लगाव
खैर मैं खुशनसीब हूँ कि मैं
दूसरे घर से हूँ
अभिलाषा "स्नेह"