ससुर जी को आज सासुमां मैंने बतियाते सुना,आज तो मिट्टी के चूल्हे की रोटी की याद आई है,क्या बात थी जब मेरी मां हमेंगर्म तरकारी, अंगारों पर सिकी चपाती घी से चिपुड कर खिलाती थी।
शौकिया……उनकी बातों को सुन हमने भी आज चूल्हा की रोटी बनाने का मन बनाया,अस्थाई ईंटों का चूल्हा की आकृति बनाईआंच के खातिर लकड़ी बाजार से मंगाई,चूल्हे पर चपाती बनाई।।
सचमुच कितना कठिन होता हैअंगारों पर रोटी बनाना,जैसे कि अंगारों पर चलना,कभी आंखों में गड़ते घुआं के गोले,रोटी सेकते हाथों में जलते गर्म शोले,सांसों में फूंकनी से बार-बार आंच को खखोले,न जाने कैसे बनाती थी रोज चूल्हे पर रोटी पहले की नारी, पहनकर साढेपांच मीटर लंबी साड़ी,खुला आसमान, सांझा परिवार,सिर पर टंगा रहता हमेशा पल्लू भारी,कच्ची उम्र, निभाती परिवार की सारी जिम्मेदारी,ममता और क्षमता परीक्षा में रहतीअबला सबला थी पहले की नारीमिट्टी का चूल्हा, मिट्टी का तवा उससे बने खाने की मिठास,खुशहाली और खुशी मेंअब कहां वो अहसास???
कितना अंतर था,आज की औरत और वो पहले की नारीना ही पहने साड़ी,ना ही रही अब बेचारी।।। _सीमा गुप्ता