"मैं एक कविता हुं"
न तो पहले मुकाम पर कायम हुं,
और न आखरी पायदान पर हुं।
टूटी हुई माला को वापिस पिरोए,
एक मनका हुं, मैं एक कविता हुं।।
अबोध सूखे कंठ की प्यास बनती,
हलक विद्वानों के प्राणों में भी बसती।
परमबोध की पावन गंगा बहाती ,
एक मीठी रसधार हुं, मैं एक कविता हुं।।
कही लघु तो कही दीर्घ हुं,
कही उजाड़ तो कही तीर्थ हुं।
कही अनकही तो कही अनसुनी,
एक फ़रियाद हुं, मैं एक कविता हुं।।
कभी जीवन के मर्म को समझाती,
कभी मृत्यु का राग अलापती।
पल-पल के संघर्ष को विलाप करती,
एक अविरल गाथा हुं, मैं एक कविता हुं।।
जमाने कई आकर गुजर गए मुझमें,
और कई सदियों का आना अभी शेष।
वक्त की सराय में रुका नन्हा सा,
एक लम्हा मुसाफिर हुं, मै एक कविता हुं।।
आंचल से अपने अंग को ढकती,
योवन देकर भी अपने अंश को पालती।
समंदर हो गई फिर भी दरिया को तरसती,
एक औरत हुं, मैं एक कविता हुं।।
छंदो से चहकती हुई सुरो में रस घोलती ,
जागती नींदों को लोरीया गाकर सुलाती।
अपने ज़ख्मों से लिखी किसी गज़ल का,
एक मतला हुं, मैं एक कविता हुं।।
बदलते मौसमों की कैनवास पर रंग भरती हुई,
कभी अगीया के अंडों में कसमसाती हुई।
कही फूलों को खुशबूओं से भिगोती हुई,
एक शबनम की बूंद हुं, मैं एक कविता हुं।।
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रचनाकार - निलेश भावसार "बसंत कुमार"