साहित्य के महाप्राण
सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'
ऋतु वसंत की पंचमी तिथि को उजाला हो गया।
सूर्य सा था प्रज्वलित वह जग निराला हो गया।
था वह अक्खड़ केश झबरे किन्तु अंतर्दीप्त था।
काव्य के उस व्योम पर वह ध्रुव सा ही प्रदीप्त था।
वीणापाणि स्वर की देवी शारदे का अंश था वह।
सूर्य सा ही तेज था मानो सूर्य का ही वंश था वह।
वंदना निकली जो कंठ आज भी नव अमृत भर दे।
वर दे वीणावादिनी वर दे, वर दे वीणावादिनी वर दे।
प्रभावती के गीतकुंज से कर रहा था वह अर्चना।
सांध्य बेला में जूही की कली से की आराधना।
क्या लिखा अद्भुत विरह को उस सरोज स्मृति में।
काव्य के ही हो गए उस काव्य की ही स्वीकृति में।
देख कर संवेदना को लिख दिया भिक्षुक व्यथा।
वह तोड़ती पत्थर पथ पर लिखी श्रमबाला कथा।
ओज और संवेदना से परे लिख दिया श्रृंगार भी।
बाँधो न नाव इस ठांव बन्धु का लिखा सार भी।
काव्य से अपने सदा वे नव चेतना जागृत थे करते।
जागो फिर एक बार हुँकार से वे उद्घोष रहे भरते।
राम की शक्ति पूजा से काव्य अमृत्व में लीन थे।
हिन्दी भाषा के जगत में वे प्राण और प्रवीण थे।
राष्ट्र भाषा हिन्दी की अस्मिता के लिए लड़ते रहे।
विश्व वाणी हेतु वे नित नव पथ पर बढ़ते रहे।
हिन्दी के उस व्योम पर अपने स्वर्ण हस्ताक्षर किये।
माँ शारदे की वंदना के स्वर बन उसे अमर किये।
साहित्य के थे युगपुरुष और दिव्य महाप्राण थे।
भारत की इस पुण्य धरा पर साहित्य के प्रमाण थे।
जब तक वह नभ में सूर्य है उजाला आता रहेगा।
ये अमर भारत सदा ही वह निराला गाता रहेगा।
राघवेंद्र सिंह
घोषणा : यह रचना मेरी स्वरचित मौलिक रचना है इसकी सत्यता की पूर्ण जिम्मेदारी मेरी है।