यह उन दिनों की बात है जब यवन सेना विश्व विजय के उद्देश्य से भारत की ओर निरंतर बढ़ती जा रही थी। आचार्य चाणक्य इस परिस्थिति को भलीभांति देख रहे थे। वह भारत को लूटते हुए नहीं देखना चाहते थे इसलिए उन्होंने उस समय के शक्तिशाली और विस्तृत साम्राज्य के से राजा धनानंद से मदद मांगने के लिए दरबार में उपस्थित हुए।
कहो!ब्राह्मण तुम कौन हो और कहां से आए हो ?
महाराज -मैं तक्षशिला का आचार्य चाणक्य हूं!
कहो किस लिए आए हो ?
यवन की सेना निरंतर आर्यव्रत की ओर बढ़ती आ रही है जिसका उद्देश्य ठीक नहीं है।
तो हम क्या कर सकते हैं ?
महाराज आपके पास विशाल सेना है,आप उसका सामना कर सकते हैं। अगर उसे नहीं रोका गया तो आप का साम्राज्य भी नहीं बचेगा। इस प्रकार की वार्तालाप दोनों के बीच हुई जिसमें धनानंद अपने लोभ और अहंकार से बाहर नहीं निकला और आचार्य चाणक्य की भरे दरबार में बेज्जती करते हुए लात मारकर निष्कासित करने का आदेश दिया। इस प्रहार से आचार्य जमीन पर गिरे और उनके शिखा खुल गई।
उस खुली शिखा को दिखाते हुए उन्होंने भरी दरबार में संकल्प लिया-‘यह शिखा तब तक नहीं बांधूंगा जब तक मगध साम्राज्य की गद्दी पर कोई योग्य राजा ना बैठा दूँ। ‘ऐसा ही हुआ उन्होंने कठिन परिश्रम और योग्यता से बेहद छोटे से आदिवासी लड़के चंदू को योग्य बना कर चंद्रगुप्त मौर्य के रूप में स्थापित किया।