एक बार भोजन करते समय हवा से दीपक बुझ गया, परंतु अभ्यासवश हाथ बार-बार मुँह तक ही पहुँचता था। इस तथ्य की ओर ध्यान देकर अर्जुन ने रात्रि में भी धनुर्विद्या का अभ्यास प्रारंभ कर दिया। वह द्रोण का अत्यंत प्रिय शिष्य था। द्रोण ने एकलव्य को शिष्य बनाना स्वीकार नहीं किया था क्योंकि वे अर्जुन को धनुर्विद्या में अद्वितीय बनाये रखना चाहते थे। द्रोणाचार्य ने गुरुदक्षिणा के रूप में शिष्यों से राजा द्रुपद को बंदी बना लाने के लिए कहा। ऐसा होने पर उसका आधा राज्य उसे लौटाते हुए द्रोण ने कहा- तुम कहते थे कि राजा ही राजा का मित्र हो सकता है, अत: आज से तुम्हारा आधा राज्य मेरे पास रहेगा और दोनों राजा होने के कारण मित्र भी रहेंगे। द्रुपद अत्यंत लज्जित स्थिति में अपने राज्य की ओर लौटा। द्रोण ने अर्जुन से गुरुदक्षिणा-स्वरूप यह प्रतिज्ञा ली कि यदि द्रोण भी उसके विरोध में खड़े होंगे तो वह युद्ध करेगा।
निषाद बालक एकलव्य जो कि अद्भुत धर्नुधर बन गया था। वह द्रोणाचार्य को अपना इष्ट गुरु मानता था और उनकी मूर्ति बनाकर उसके सामने अभ्यास कर धर्नुविद्या में पारंगत हो गया था अर्जुन के समकक्ष कोई ना हो जाए इस कारण द्रोणाचार्य ने एकलव्य से गुरु दक्षिणा के रूप में दाहिने हाथ का अँगूठा माँग लिया। एकलव्य ने हँसते हँसते अँगूठा दे दिया।
द्रोणाचार्य ने कर्ण की प्रतिभा को पहचान लिया था और उसे भी सूतपुत्र बता शिक्षा देने से मनाकर दिया था।